Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि अगर कोई व्यक्ति किसी अन्य मामले में पहले से हिरासत में है, तो भी उसे अग्रिम जमानत दी जा सकती है। यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण कदम है, क्योंकि यह न्यायालय के अधिकार और अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण को नए सिरे से स्पष्ट करता है। इस फैसले को चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला, और जस्टिस मनोज मिश्रा की तीन जजों की पीठ ने सुनाया।
अग्रिम जमानत और न्यायिक अधिकार
पीठ ने अपने फैसले में कहा कि किसी आरोपी को अग्रिम जमानत देने से सत्र अदालत या उच्च न्यायालय को रोकने वाला कोई स्पष्ट या अंतर्निहित प्रतिबंध नहीं है, भले ही वह व्यक्ति किसी अन्य अपराध में पहले से हिरासत में हो। इस प्रकार का प्रतिबंध विधायिका की मंशा के खिलाफ होगा, जो अभियुक्त को उस अपराध के संबंध में दिए गए अधिकारों से वंचित कर सकता है। अदालत ने इस फैसले में यह भी स्पष्ट किया कि अभियुक्त को दी गई सुरक्षा किसी पिछले अपराध से स्वतंत्र होती है।
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दोहरे मामलों में अग्रिम जमानत का अधिकार | Supreme Court
इस फैसले के द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया है कि अगर कोई अभियुक्त एक अपराध में हिरासत में है, तो भी वह किसी अन्य अपराध के संबंध में अग्रिम जमानत के लिए अर्जी दायर कर सकता है। अदालत ने कहा कि एक मामले में गिरफ्तारी दूसरे मामले में गिरफ्तारी से सुरक्षा मांगने के अधिकार को समाप्त नहीं कर सकती। यह फैसला अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर किसी अभियुक्त को दूसरे अपराध में गिरफ्तारी का खतरा होता है, तो वह अग्रिम जमानत के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है।
अभियुक्त को गिरफ्तारी से सुरक्षा | Supreme Court
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर किसी अभियुक्त को एक अपराध में अग्रिम जमानत मिल जाती है, तो पुलिस उसे उस अपराध के संबंध में गिरफ्तार नहीं कर सकती। यह बात तब भी लागू होती है जब अभियुक्त किसी अन्य अपराध के मामले में हिरासत में हो। इस तरह, अदालत ने यह सुनिश्चित किया है कि पुलिस या जांच एजेंसी का विवेक अभियुक्त के अधिकारों पर हावी नहीं हो सकता। यह फैसला न्यायपालिका और विधायिका के बीच संतुलन को बनाए रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
क्या है मामला ?
यह मुद्दा तब उठा जब एक आरोपी के खिलाफ दायर आपराधिक शिकायत को खारिज कर दिया गया था। लेकिन उसे एक अन्य मामले में गिरफ्तार किया गया, जिसके बाद आरोपी ने बॉम्बे हाई कोर्ट में अग्रिम जमानत के लिए याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका को विचारणीय मानते हुए इसे स्वीकार किया और इसके आधार पर इस महत्वपूर्ण फैसले को सुनाया। अभियुक्त के वकील ने तर्क दिया कि जांच अधिकारी के विवेक के आधार पर गिरफ्तारी की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने अभियुक्त के तर्क में दम पाया और उसे अग्रिम जमानत देने का फैसला किया।
न्यायिक समीक्षा का महत्व
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक समीक्षा और अभियुक्तों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी की आशंका के संबंध में अग्रिम जमानत का अधिकार कानूनी रूप से मान्य है, चाहे अभियुक्त किसी अन्य मामले में हिरासत में हो या न हो। यह फैसला अभियुक्तों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित होने से बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच प्रदान करता है।
विधायिका की मंशा का सम्मान
अदालत ने इस फैसले में विधायिका की मंशा का भी सम्मान किया और यह सुनिश्चित किया कि कोई भी कानून अभियुक्तों को उनके अधिकारों से वंचित न करे। न्यायपालिका का यह कर्तव्य है कि वह कानूनों की व्याख्या करते समय अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का संरक्षण सुनिश्चित करे। इस फैसले से यह स्पष्ट होता है कि न्यायपालिका अभियुक्तों के अधिकारों की रक्षा के प्रति सजग है और किसी भी तरह के अन्याय को रोकने के लिए तत्पर है।
इस फैसले के दूरगामी निहितार्थ हो सकते हैं, क्योंकि यह उन अभियुक्तों के लिए राहत का मार्ग प्रशस्त करता है जो किसी अन्य मामले में हिरासत में होने के बावजूद अग्रिम जमानत के हकदार हो सकते हैं। यह फैसला अभियुक्तों को गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखने के मामलों में भी एक मिसाल के रूप में काम करेगा, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि अभियुक्तों के अधिकारों का हनन न हो।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है, जो अभियुक्तों के अधिकारों और न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र को नए सिरे से परिभाषित करता है। इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि अग्रिम जमानत का अधिकार अभियुक्तों के मौलिक अधिकारों का हिस्सा है, और यह अधिकार उस अपराध से स्वतंत्र है जिसके तहत व्यक्ति पहले से हिरासत में है। न्यायपालिका और विधायिका के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए यह फैसला एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि अभियुक्तों के अधिकारों का सम्मान हो और किसी भी तरह के अन्याय से बचा जा सके।