Supreme Court New petition on freebies: हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त उपहार या “फ्रीबीज” देने के वादों पर लगाम लगाने के लिए एक नई याचिका पर केंद्र सरकार और भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) को नोटिस जारी किया है। इस याचिका में अनुरोध किया गया है कि चुनाव प्रचार के दौरान मुफ्त सामान, जैसे कि बिजली, पानी, लैपटॉप, स्मार्टफोन आदि का वादा एक प्रकार की “रिश्वत” है, जो कि मतदाताओं को प्रभावित करता है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस तरह के प्रलोभन जनप्रतिनिधि चुनाव की प्रक्रिया को दूषित कर देते हैं, और इसे रोकने के लिए उचित कदम उठाए जाने चाहिए।
याचिका में मुख्य तर्क यह है कि राजनीतिक दल इन “फ्रीबीज” के वादों का उपयोग करते हुए मतदाताओं को प्रभावित कर रहे हैं, जो कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ अन्याय है। याचिकाकर्ताओं का मानना है कि ये वादे आर्थिक बोझ भी डालते हैं, क्योंकि इनकी पूर्ति सरकारी खजाने पर निर्भर करती है, जो कि देश की अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदायक हो सकता है। याचिका में मांग की गई है कि चुनाव आयोग इस तरह के वादों पर अंकुश लगाने के लिए सख्त कदम उठाए और उन्हें कानून द्वारा निषिद्ध किया जाए।
यह मुद्दा पहली बार सामने नहीं आया है। इससे पहले भी इस पर बहस हो चुकी है, जब बीजेपी नेता और वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने एक याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने फ्रीबीज के इस चलन को खत्म करने की मांग की थी। उस याचिका के अनुसार, मुफ्त उपहारों के वादे केवल आर्थिक रूप से सक्षम राज्यों द्वारा ही नहीं बल्कि कमजोर वित्तीय स्थिति वाले राज्यों द्वारा भी किए जाते हैं, जिससे राज्य के वित्त पर भारी दबाव पड़ता है और इसका असर जनता की भलाई पर भी पड़ता है। यह भी तर्क दिया गया था कि ये वादे दीर्घकालिक विकास के बजाए अल्पकालिक लाभ के लिए किए जाते हैं, जो कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विपरीत है।
सुप्रीम कोर्ट ने अब नई याचिका को उपाध्याय की याचिका के साथ जोड़ दिया है ताकि इस मुद्दे पर समग्र निर्णय लिया जा सके। कोर्ट का मानना है कि इस तरह के मुफ्त वादों पर अंकुश लगाने से चुनावी प्रक्रिया अधिक निष्पक्ष और पारदर्शी बन सकेगी। कोर्ट ने चुनाव आयोग से यह भी कहा कि वह इस संबंध में अपना रुख स्पष्ट करे और यह बताए कि वह इस तरह के वादों पर क्या नियंत्रण लगाएगा।
इस मुद्दे के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण भी हैं। कुछ लोग मानते हैं कि इन मुफ्त योजनाओं के वादों से गरीब वर्ग को राहत मिलती है, जो कि उनकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने में मददगार होती है। वहीं, अन्य लोग इसे एक प्रकार का प्रलोभन मानते हैं जो कि मतदाता के निर्णय को प्रभावित करता है। यदि इसे रिश्वत का दर्जा दिया जाता है, तो यह राजनीतिक दलों के चुनाव प्रचार में एक बड़ा बदलाव ला सकता है।
अंततः, सुप्रीम कोर्ट का यह कदम राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त वादों की वैधता और उनके आर्थिक प्रभाव पर एक व्यापक चर्चा को जन्म दे सकता है। इसका उद्देश्य एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रणाली सुनिश्चित करना है, जो कि देश की भलाई के लिए आवश्यक है।