Saturday, July 27, 2024
HomeअपराधकानूनSupreme Court : आजादी के बाद से देश में हुए चुनाव से...

Supreme Court : आजादी के बाद से देश में हुए चुनाव से जुड़े फैसलों के जरिये भारत के लोकतंत्र को आकार और समृद्ध किया गया

Supreme Court : देश के लोकतंत्र की नीव मजबूत करने में न्यायपालिका की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। शीर्ष अदालत ने 1951 से लेकर अब तक कई ऐसे फैसले सुनाए हैं जो चुनावी प्रक्रिया में मील का पत्थर साबित हुए हैं। आज हम बात करेंगे, 1951 से 2024 तक के ऐसे ही फैसलों के बारे में जिसने भारतीय लोकतंत्र को और भी मजबूत किया है। गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने 100% ईवीएम-वीवीपीएटी सत्यापन की याचिका पर फैसला सुरक्षित रखा। सुप्रीम कोर्ट ने इसके साथ ही ईवीएम में अपना विश्वास दोहराया है। शीर्ष अदालत के कई फैसलों ने आजादी के बाद से देश में हुए चुनाव से जुड़े फैसलों के जरिये भारत के लोकतंत्र को आकार और समृद्ध किया है।

साल 1952

भारतीय लोकतंत्र के पहले आम चुनाव से कुछ महीने पहले, जनवरी 1952 में, सुप्रीम कोर्ट ने पोन्नुस्वामी मामले में फैसला सुनाया था। इसमें शीर्ष अदालत ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 329 (बी) में ‘चुनाव’ शब्द “अधिसूचना जारी करने के साथ शुरू होने वाली पूरी चुनावी प्रक्रिया को दर्शाता है। शीर्ष अदालत ने कहा था कि चुनावी प्रक्रिया एक बार शुरू होने के बाद किसी भी घटना के बाद भी मध्यस्थ चरण में कोर्ट की तरफ से हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। मतलब ये है कि , एक पीड़ित उम्मीदवार परिणामों की घोषणा के बाद केवल चुनाव याचिका के माध्यम से चुनाव विसंगतियों को चुनौती दे सकता है, इस सदर्भ में वो कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटा सकता है ।

साल 1971

कॉग्रेस के विभाजन के बाद जगजीवन राम और एस निजलिंगप्पा के नेतृत्व वाले गुटों ने पार्टी के नाम पर दावा किया था। ऐसे में चुनाव आयोग (ईसी) ने यह मामले को देखते हुए जगजीवन राम गुट के पक्ष में फैसला सुनाया कि क्योकि उन्हें कांग्रेस सांसदों, विधायकों और प्रतिनिधियों का बहुमत समर्थन प्राप्त था। बाद में, सादिक अली मामले (1971) में, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को बरकरार रखा था । कोर्ट को उस समय स्पष्टरूप यह पता लगाने में कठिनाइयां थीं कि इस गट का प्राथमिक सदस्य कौन है और उनकी इच्छाओं क्या है। यह वैध रूप से माना जा सकता है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य और प्रतिनिधियों ने कुल मिलाकर प्राथमिक सदस्यों के विचारों को प्रतिबिंबित किया था । उसी फैसले को आधार बनाते हुए चुनाव आयोग ने हाल ही में शिवसेना और एनसीपी में हुए विभाजन पर फैसला सुनाया था, जिस आधार पर उसने 1969 के कांग्रेस मामले में अपना फैसला दिया था।

साल 1975

यह घटना भारतीय इतिहास का एक महत्तपूर्ण घटना के नाम से जाना जाता है, इसी मामले के बाद पुरे भारत में इस सविधान का सबसे लम्बा राष्ट्रपति शासन लगा था। तारीख 12 जून 1975 को, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली का चुनाव रद्द कर दिया। इसके बाद आपातकाल की घोषणा हो गई। सुप्रीम कोर्ट में पीएम की अपील के लंबित रहने के दौरान, संसद ने चुनाव कानून (संशोधन) अधिनियम, 1975 पारित किया। इससे लोक प्रतिनिधित्व (आरपी) अधिनियम के कई प्रावधानों को बदल दिया गया। संसद ने 39वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम भी बनाया, जिसमें अदालतों को पीएम और स्पीकर के चुनावों की जांच करने से रोक दिया गया। नवंबर 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा के चुनाव को बरकरार रखा, लेकिन 39वें संशोधन अधिनियम को आंशिक रूप से रद्द कर दिया। इसने अदालतों को पीएम और स्पीकर के खिलाफ चुनाव याचिकाओं पर विचार करने से रोक दिया गया है।

साल 2002 से 2004

2002 से 2004 के अंत में सुप्रीम कोर्ट ने मतदाता अधिकारों की रक्षा और विस्तार के लिए कई ऐतिहासिक फैसले दिए। 2002 में, यूनियन ऑफ इंडिया बनाम एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स मामले में फैसला सुनाया था। कोर्ट ने कहा था कि मतदाताओं को उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड, शिक्षा स्तर और संपत्ति सहित उनके बारे में जानने का मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सूचना का अधिकार चुनाव के अधिकार का पूरक है। यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार से आता है। इसके बाद एनडीए सरकार एक विधेयक लेकर आई। इसमें उम्मीदवारों को आपराधिक पृष्ठभूमि घोषित करने से छूट देने के लिए आरपी अधिनियम में धारा 33बी पेश की। 2004 में, SC ने इस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया। इसके बाद उम्मीदवारों को एफआईआर सहित उनके खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों की घोषणा करना अनिवार्य कर दिया गया।

जुलाई 2013

देश के चर्चित लिली थॉमस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आरपी एक्ट की धारा 8(4) को रद कर दिया था। ये धारा सांसदों और विधायकों को भ्रष्टाचार के मामलों में दोषी ठहराए जाने या अन्य आपराधिक मामलों में दो या अधिक साल की सजा होने के बाद भी विधायक बने रहने की अनुमति देती थी। इस एक्ट के तहत आरोपी दोषसिद्ध के 90 दिनों के भीतर उच्च मंच पर अपील करते थे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद, अयोग्यता स्वचालित रूप से लागू हो जाती है। यदि कोई ऊपरी अदालत दोषसिद्धि और सजा पर रोक लगाती है, तो एक विधायक अपनी सीट वापस पा सकता है।

सितंबर 2013

इसी साल पीयूसीएल मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं के लिए उपरोक्त में से कोई नहीं (नोटा) विकल्प पेश किया। कोर्ट ने यह टिप्पणी भी कि की मतदाता को ‘राजनीतिक दलों द्वारा खड़े किए जा रहे उम्मीदवारों के प्रति अपनी अस्वीकृति व्यक्त करना ‘ बेहद महत्वपूर्ण था। कोर्ट का कहना था कि बढ़ती अस्वीकृति धीरे-धीरे प्रणालीगत परिवर्तन लाएगी और राजनीतिक दल लोगों की इच्छा को स्वीकार करने और ऐसे उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के लिए मजबूर होंगे जो अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं। हर चुनाव में नोटा का प्रदर्शन में काफी इजाफा देखा गया है।

अक्टूबर 2013

सुब्रमण्यम स्वामी मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने शुरू में अनिच्छुक चुनाव आयोग को चरणबद्ध तरीके से ईवीएम में वोटर वेरिफिएबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) लागू करने के लिए मजबूर किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम इस बात से संतुष्ट हैं कि ‘पेपर ट्रेल’ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के लिए अनिवार्य है। ईवीएम में मतदाताओं का विश्वास केवल वीवीपैट प्रणाली की शुरुआत से ही हासिल किया जा सकता है। वीवीपैट प्रणाली वाली ईवीएम मतदान प्रणाली की सटीकता सुनिश्चित करती हैं।

साल 2014

मनोज नरूला मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पीएम और सीएम को सलाह दी कि मंत्रिपरिषद में उनकी भूमिका और उनके द्वारा ली जाने वाली शपथ की पवित्रता को ध्यान में रखते हुए, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को मंत्री न बनाया जाए। संविधान की गरिमा को ध्यान में रखते हुए देश के पीएम और सभी राज्यों के CM को ये स्पष्ट करना होगा की उनके मंत्रिमडल में कोई संगीन आपराधिक मामले वाले मंत्री का शपथ ग्रहण न हो।

2 मार्च, 2023

इसी दिन को SC की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया कि CEC और EC का चयन 3 सदस्यीय पैनल द्वारा किया जाएगा। इसमें PM, विपक्ष के नेता और CJI शामिल होंगे। इस फैसले के बाद में भाजपा सरकार ने सीईसी/ईसी की नियुक्ति पर एक अधिनियम पारित किया। इसमें सीजेआई के स्थान पर केंद्रीय कैबिनेट मंत्री को नियुक्त किया गया। 12 जनवरी, 2024 को SC ने नए कानून पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। कोर्ट ने मार्च में 2 ईसी के चयन में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए, नियुक्तियां करने में की गई ‘जल्दबाजी’ के लिए मौजूदा सरकार को फटकार भी लगाई थी।

चुनावी बांड

15 फरवरी, 2024 को, CJI डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 5-जजों की पीठ ने राजनीतिक चंदा देने वाले कंपनी की पहचान गुप्त रखने वाली चुनावी बांड योजना को ‘असंवैधानिक’ और अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मतदाताओं के सूचना के अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया था। मौजूदा सरकार ने चुनावी फंडिंग के इस तरीके को 2017 में चुनावी बांड रूप में पेश किया गया था। भारतीय स्टेट बैंक के फैसले और अदालत के सख्त निर्देशों के बाद इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा सार्वजनिक डोमेन में आया था।

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Most Popular