Maternity Leave To Adoptive Mothers: भारत में महिलाओं को उनके मातृत्व अधिकारों की सुरक्षा के लिए मेटरनिटी बेनिफिट एक्ट, 1961 लागू किया गया था, जिसे समय-समय पर संशोधित किया गया। 2017 में इसमें एक महत्वपूर्ण संशोधन किया गया, जो महिलाओं को 12 से 24 हफ्ते तक की मेटरनिटी लीव देने का प्रावधान करता है। हालांकि, इस कानून में गोद लेने वाली माताओं के लिए विशेष शर्त रखी गई है कि केवल तीन महीने से कम उम्र के नवजात शिशु को गोद लेने पर ही उन्हें 12 हफ्ते की मैटरनिटी लीव का लाभ मिलेगा।
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सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका के माध्यम से इस प्रावधान को चुनौती दी गई है। याचिकाकर्ता का तर्क है कि यह प्रावधान न केवल मनमाना है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) और मेटरनिटी बेनिफिट एक्ट की मूल भावना के भी खिलाफ है। याचिका के अनुसार, गोद लेने की प्रक्रिया में समय लगता है और ज्यादातर मामलों में तीन महीने से कम उम्र के बच्चों को गोद लेना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं होता। यह प्रावधान गोद लेने वाली माताओं के अधिकारों को सीमित करता है और उन्हें समानता के अधिकार से वंचित करता है।
याचिकाकर्ता ने कहा कि यह प्रावधान जेजे (जुवेनाइल जस्टिस) एक्ट और गोद लेने की प्रक्रिया के नियमों से भी असंगत है, क्योंकि इन प्रक्रियाओं को पूरा होने में अक्सर तीन महीने से अधिक समय लगता है। याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा है कि इस प्रावधान को लेकर उसकी राय क्या है।
मेटरनिटी बेनिफिट एक्ट के तहत अधिकार
मेटरनिटी बेनिफिट (अमेंडमेंट) एक्ट, 2017 के तहत गर्भवती महिलाओं को नौकरी में विशेष सुरक्षा और सुविधाएं प्रदान की गई हैं।
मुख्य प्रावधान
- छुट्टी का अधिकार: महिलाओं को संभावित डिलीवरी से छह सप्ताह पहले और छह सप्ताह बाद की छुट्टी का प्रावधान है।
- वेतन की सुरक्षा: मेटरनिटी लीव के दौरान महिला को उसकी सैलरी और अन्य भत्ते मिलते रहेंगे।
- अधिकतम अवकाश: कुल 24 हफ्ते तक की छुट्टी दी जा सकती है।
- अबॉर्शन के मामले में: गर्भपात की स्थिति में भी महिला को मेटरनिटी बेनिफिट का लाभ मिलेगा।
- गोद लेने वाली माताओं के लिए: अगर बच्चा तीन महीने से कम उम्र का है, तो गोद लेने वाली मां को 12 हफ्ते की छुट्टी मिलती है।
अधिकारों का संरक्षण
संविधान के अनुच्छेद-42 के तहत गर्भवती महिलाओं के लिए सुरक्षित और अनुकूल कामकाजी माहौल की गारंटी दी गई है। महिला को मेटरनिटी लीव के दौरान नौकरी से नहीं निकाला जा सकता, और यदि ऐसा होता है, तो वह इसकी शिकायत कर सकती है।
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याचिका में उठाए गए मुद्दे
- भेदभाव का आरोप: याचिकाकर्ता का कहना है कि यह प्रावधान प्राकृतिक और गोद लेने वाली माताओं के बीच असमानता पैदा करता है।
- गोद लेने की प्रक्रिया की जटिलता: कानूनी प्रक्रियाओं के कारण तीन महीने से कम उम्र के बच्चों को गोद लेना मुश्किल है।
- संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन: यह प्रावधान अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 19(1)(जी) (रोजगार का अधिकार) का उल्लंघन करता है।
सरकार की जिम्मेदारी और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस मामले में स्पष्ट रुख पेश करने को कहा है। कोर्ट ने पूछा है कि क्या मेटरनिटी लीव के प्रावधान को व्यापक और न्यायसंगत बनाने के लिए बदलाव की जरूरत है।
महत्वपूर्ण कानूनी और सामाजिक पहलू
गोद लेने वाली माताओं के अधिकारों को लेकर यह मामला केवल एक कानूनी विवाद नहीं है, बल्कि यह मातृत्व की व्यापक परिभाषा को स्वीकारने की आवश्यकता को भी उजागर करता है। मेटरनिटी बेनिफिट एक्ट का उद्देश्य महिलाओं को उनके मातृत्व के दौरान शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है। यह आवश्यक है कि कानून सभी प्रकार की माताओं—प्राकृतिक और गोद लेने वाली—के अधिकारों की समान सुरक्षा करे।
इस मामले की अगली सुनवाई 17 दिसंबर को होगी। यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सुप्रीम कोर्ट इस पर क्या निर्णय देती है और क्या केंद्र सरकार इस प्रावधान में संशोधन का सुझाव देती है। यदि याचिकाकर्ता के पक्ष में निर्णय होता है, तो यह गोद लेने वाली माताओं के लिए एक महत्वपूर्ण जीत होगी और समाज में मातृत्व की नई परिभाषा को प्रोत्साहित करेगा।