Jammu Kashmir: कश्मीरी पंडित समुदाय की हालिया बैठक ने जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में एक नई दिशा दी है। इस बैठक का मुख्य उद्देश्य आगामी विधानसभा चुनावों में समुदाय की भागीदारी को लेकर विचार-विमर्श करना था।
धारा 370 हटने के बाद, यह चुनाव राज्य के राजनीतिक भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हैं, लेकिन कश्मीरी पंडितों के लिए यह सिर्फ एक चुनाव नहीं है; यह उनके अस्तित्व, उनकी पीड़ा और उनके हक़ की लड़ाई से भी जुड़ा हुआ है।
नरसंहार को मान्यता की मांग
कश्मीरी पंडित दशकों से अपने नरसंहार की मान्यता की मांग कर रहे हैं। 1990 के दशक में हुए पलायन के बाद से, यह समुदाय विस्थापन, उत्पीड़न और उपेक्षा का सामना कर रहा है। कश्मीरी पंडित नेताओं का मानना है कि राजनीतिक दल उनके मुद्दों को हल करने के बजाय, उन्हें सिर्फ चुनावी राजनीति का हिस्सा बनाकर इस्तेमाल करते रहे हैं। बैठक में समुदाय के नेताओं ने स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक उनके नरसंहार को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी जाती, वे विधानसभा चुनावों में भाग नहीं लेंगे।
ये भी पढ़ें : America में प्रेसिडेंशियल डिबेट में ट्रंप पर भारी पड़ी कमला हैरिस, उठाया गर्भपात का मुद्दा
वकील टीटो गंजू का विचार | Jammu Kashmir
बैठक में प्रमुख वक्ताओं में से एक, संविधान विशेषज्ञ और वकील टीटो गंजू ने कहा कि कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की मान्यता और उनकी मातृभूमि में सम्मान के साथ वापसी की मांगों को लगातार अनदेखा किया गया है। उन्होंने कहा कि यदि समुदाय इन चुनावों में हिस्सा लेता है, तो यह उसी सिस्टम को समर्थन देने जैसा होगा, जिसने उनकी पीड़ा को नजरअंदाज किया है। उनका मानना है कि यह चुनाव कश्मीरी पंडितों के लिए नहीं है और समुदाय को अपने संघर्ष में अडिग रहना चाहिए। चुनाव में भाग लेकर, वे केवल उस राजनीतिक प्रणाली का हिस्सा बन जाएंगे, जो उन्हें निरंतर चुप कराने की कोशिश करती रही है।
टीटो गंजू ने जोर देकर कहा कि इस बार चुनाव से दूर रहना कश्मीरी पंडितों के लिए एक स्पष्ट संदेश भेजने का मौका है। यह संदेश यह होगा कि समुदाय को सिर्फ चुनावी मोहरे की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है, और उनकी वास्तविक समस्याओं को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह उनके बहिष्कार का तरीका है, जो उस राजनीतिक प्रणाली के खिलाफ उनकी नाराजगी को दर्शाता है, जिसने उनकी समस्याओं को हल करने की कोई ठोस कोशिश नहीं की है।
पनुन कश्मीर के अध्यक्ष अजय चुरंगू का बयान | Jammu Kashmir
पनुन कश्मीर के अध्यक्ष अजय चुरंगू ने भी बैठक में भाग लिया और कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार और जबरन विस्थापन को संबोधित किए बिना चुनाव कराए जाने के मुद्दे को उठाया। उन्होंने कहा कि इस तरह के चुनाव दरअसल समुदाय के उन्मूलन को छिपाने का प्रयास हैं। चुरंगू ने इस बात पर जोर दिया कि यह चुनाव सिर्फ एक राजनीतिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि यह कश्मीरी पंडितों के निर्वासन और उनके अधिकारों के उल्लंघन के बारे में है।
चुरंगू ने कहा कि चुनावों में भाग लेने का फैसला सिर्फ राजनीतिक नहीं है, बल्कि यह समुदाय के अस्तित्व से जुड़ा है। यदि कश्मीरी पंडित इस चुनाव में भाग लेते हैं, तो यह मानने जैसा होगा कि उनके मुद्दों का हल निकाल लिया गया है, जबकि असलियत में ऐसा नहीं है। उनके अनुसार, यह चुनाव उनके बहिष्कार और उन्हें राजनीतिक हाशिए पर डालने का एक और प्रयास है।
समुदाय के फैसले
यह पहला मौका नहीं है जब कश्मीरी पंडितों ने अपने नरसंहार और पलायन की मान्यता की मांग की है। दशकों से वे अपनी मातृभूमि में वापसी की मांग कर रहे हैं, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। 1990 के दशक में हुए पलायन के बाद, कश्मीरी पंडितों को उनके घरों से जबरन निकाल दिया गया था, और तब से वे निर्वासन में जीवन बिता रहे हैं।
इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की चुप्पी और अनदेखी के चलते कश्मीरी पंडित समुदाय में आक्रोश बढ़ता जा रहा है। समुदाय के नेताओं का कहना है कि उनकी समस्याओं को हर चुनाव के दौरान राजनीतिक चर्चा का हिस्सा तो बनाया जाता है, लेकिन चुनाव खत्म होते ही उन्हें फिर से अनदेखा कर दिया जाता है।
चुनावों में भागीदारी का विरोध
बैठक में सर्वसम्मति से यह फैसला लिया गया कि कश्मीरी पंडित समुदाय आगामी जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनावों में भाग नहीं लेगा। यह निर्णय उस राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ उनके आक्रोश का प्रतीक है, जो उनके नरसंहार और पलायन को अनदेखा करती रही है। नेताओं का मानना है कि चुनावों में भाग लेकर, वे अपने मुद्दों को हल करने के बजाय उन्हें और जटिल बना देंगे।
यह चुनाव उनके लिए सिर्फ राजनीतिक भागीदारी का सवाल नहीं है, बल्कि उनके सम्मान और अधिकारों की बहाली का मुद्दा है। कश्मीरी पंडितों का मानना है कि जब तक उनके नरसंहार को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी जाती और उनकी मातृभूमि में सम्मानजनक वापसी की व्यवस्था नहीं की जाती, तब तक चुनावों में उनकी भागीदारी का कोई मतलब नहीं है।
बैठक में यह भी चर्चा हुई कि इस चुनाव बहिष्कार के बाद समुदाय की अगली रणनीति क्या होनी चाहिए। नेताओं ने कहा कि कश्मीरी पंडितों को अपने हक की लड़ाई में एकजुट रहना होगा और अपने मुद्दों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी उठाना होगा। उनका मानना है कि सिर्फ चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बनने से उनके मुद्दों का हल नहीं निकलेगा, बल्कि उन्हें एक व्यापक और संगठित आंदोलन की जरूरत है।
आने वाले समय में, कश्मीरी पंडितों का यह चुनाव बहिष्कार जम्मू-कश्मीर की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है। यह न सिर्फ कश्मीरी पंडितों के मुद्दों को प्रमुखता से उठाने का अवसर देगा, बल्कि उन राजनीतिक दलों को भी चुनौती देगा, जो उनके मुद्दों को अनदेखा करते रहे हैं।
कश्मीरी पंडित समुदाय की इस बैठक से यह स्पष्ट हो गया है कि उनका संघर्ष केवल चुनावी राजनीति तक सीमित नहीं है। यह उनके अस्तित्व, उनकी पहचान और उनके अधिकारों की लड़ाई है। जब तक उनके नरसंहार को औपचारिक रूप से मान्यता नहीं दी जाती और उनकी मातृभूमि में सम्मान के साथ वापसी की व्यवस्था नहीं होती, तब तक वे किसी भी चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बनेंगे।