Caste Census Debate: भारत में जनगणना एक महत्वपूर्ण सरकारी प्रक्रिया है, जो हर 10 वर्षों के अंतराल पर की जाती है। अंतिम बार 2011 में जनगणना हुई थी और अब यह 2021 में होनी चाहिए थी, लेकिन कोविड-19 महामारी के चलते इसे टाल दिया गया। अब संभावना है कि केंद्र सरकार जल्द ही जनगणना की नई तिथि की घोषणा कर सकती है और रिपोर्ट 2026 तक आने की उम्मीद है। इस बार की जनगणना को लेकर विशेष उत्सुकता है क्योंकि जाति जनगणना का मुद्दा एक बार फिर उभरकर सामने आ गया है।
क्या है जातीय जनगणना मामला ?
जाति जनगणना का मुद्दा नया नहीं है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय नेतृत्व ने यह निर्णय लिया कि अंग्रेजों द्वारा की गई जातीय गणना को जारी नहीं रखा जाएगा। उस समय के नेताओं का मानना था कि जाति के आधार पर समाज को विभाजित करने की अंग्रेजों की नीति ने भारत को सामाजिक रूप से कमजोर किया था। इसलिए, स्वतंत्रता के बाद केवल अनुसूचित जाति और जनजाति की गणना की गई, जिनके लिए आरक्षण की व्यवस्था है।
जाति जनगणना के तर्क पर पक्ष और विपक्ष के विचार | Caste Census Debate
जाति जनगणना के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे सही आंकड़े प्राप्त होंगे जिनके आधार पर आरक्षण और अन्य कल्याणकारी योजनाओं को और अधिक सटीक बनाया जा सकेगा। इसके समर्थकों का मानना है कि बिना सही आंकड़ों के नीतियों का प्रभावी कार्यान्वयन संभव नहीं है।
वहीं, इसके विरोधियों का तर्क है कि भारतीय समाज ने काफी हद तक जातीय भेदभाव को पीछे छोड़ दिया है, और जाति जनगणना इसे फिर से उभार सकती है। उनका कहना है कि जातियों के बारे में पर्याप्त आंकड़े पहले से ही मौजूद हैं, और नई गणना से समाज में विभाजन और बढ़ सकता है।
जाति जनगणना की मांग और राजनीतिक माहौल
जाति जनगणना की मांग सबसे पहले मंडलवादी दलों द्वारा उठाई गई थी और बाद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे समर्थन दिया। पिछली लोकसभा चुनावों में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा था और इसका असर मतदान पर भी दिखा। हालांकि, देश में अभी भी जाति गणना को लेकर आम सहमति नहीं है।
नरेंद्र मोदी सरकार ने भी इस मुद्दे पर संकेत दिए हैं कि आगामी जनगणना के साथ जाति गणना की जा सकती है। हालांकि, इसकी औपचारिक घोषणा नहीं की गई है, लेकिन कुछ कैबिनेट मंत्रियों के बयानों से ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार इसकी तैयारी कर रही है।
बिहार और कर्नाटक के अनुभव
बिहार की नीतीश सरकार ने पिछले वर्ष जाति सर्वेक्षण कराया और इसे महात्मा गांधी के जन्म दिवस पर जारी किया। लेकिन इसके बाद कई शहरों और गांवों में लोगों ने दावा किया कि उनके यहां कोई सर्वेक्षण करने नहीं आया। फिर भी, वह रिपोर्ट सरकारी रिकॉर्ड में शामिल हो गई। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने 2015 में जातीय गणना कराई थी लेकिन वह रिपोर्ट आज तक जारी नहीं की गई।
जाति संरचना की जटिलता
भारत की जाति संरचना बेहद जटिल है। 1931 में हुई पहली जाति गणना में देश में कुल 4,147 जातियों की गिनती हुई थी, लेकिन 2011 की गणना में यह संख्या 46 लाख से भी ज्यादा हो गई। इसी तरह, 1931 में महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति, जनजाति और OBC की कुल 494 जातियां थीं, लेकिन 2011 में यह संख्या 4 लाख 28 हजार 677 पाई गई। इससे साफ होता है कि जातीय गणना के सटीक आंकड़े हासिल करना बेहद मुश्किल है।
जाति जनगणना और सामाजिक एकता
आज के दौर में जब भारत विश्व के शीर्ष विकसित राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है, सामाजिक एकता अत्यंत आवश्यक है। जाति जनगणना को लेकर एक बड़ा सवाल यह है कि क्या यह समाज को विभाजित कर सकती है ? राजनीतिक दलों द्वारा जातियों को आधार बनाकर वोट बैंक की राजनीति करना इस सवाल को और भी जटिल बना देता है।
जाति जनगणना को लेकर अब तक के अनुभव बताते हैं कि यह एक बेहद जटिल और विवादास्पद मुद्दा है। इससे जुड़ी हर कार्रवाई का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। अगर इस मुद्दे को सही तरीके से नहीं संभाला गया, तो यह सामाजिक विभाजन का कारण बन सकता है।
जाति जनगणना एक ऐसा मुद्दा है, जो भारत की सामाजिक संरचना और राजनीति दोनों पर गहरा प्रभाव डाल सकता है। इसे लेकर देश में एक व्यापक बहस की जरूरत है। यह महत्वपूर्ण है कि इसे केवल वोट बैंक की राजनीति के नजरिए से न देखा जाए, बल्कि इसके दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक प्रभावों पर भी विचार किया जाए।
आखिरकार, हमारा अंतिम लक्ष्य एक समतामूलक समाज का निर्माण है, जो जाति और धर्म के भेदभाव से परे हो। जाति जनगणना को लेकर जो भी निर्णय लिया जाए, उसे इसी लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए लिया जाना चाहिए। सरकार और राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इसका दुरुपयोग न हो और समाज में एकता और समरसता बनी रहे।