Arvind Kejriwal Resignation : दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में अपने पद से इस्तीफा देने की घोषणा करके एक नया राजनीतिक दांव खेला है। इस कदम के साथ ही उन्होंने दिल्ली की जनता से नए सिरे से जनादेश मांगने का आह्वान किया है। उनका कहना है कि वह तब तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठेंगे, जब तक जनता उन्हें फिर से जनादेश नहीं देती। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट से उन्हें जमानत मिलने के दो दिन बाद आया है। केजरीवाल पर शराब घोटाले में शामिल होने के आरोप लगे हैं, और उनके करीबी नेता मनीष सिसोदिया इस मामले में 17 महीने जेल में बिता चुके हैं।
केजरीवाल का यह कदम कई मायनों में उनकी छवि सुधारने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है, जो हाल के वर्षों में लगातार गिरती जा रही थी। पिछले कुछ समय से उनकी पार्टी, आम आदमी पार्टी (आप), को विभिन्न मुद्दों पर आलोचना का सामना करना पड़ा है। इस स्थिति में इस्तीफा देकर केजरीवाल ने एक बड़ा राजनीतिक दांव खेला है, जिसका प्रभाव दिल्ली की राजनीति पर लंबे समय तक देखने को मिल सकता है।
केजरीवाल के इस्तीफे के दो पक्ष
केजरीवाल का यह फैसला चौंकाने वाला जरूर है, लेकिन गहराई से देखने पर इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है। यह फैसला एक तरफ नैतिकता की दुहाई देने वाले नेता की छवि को उभारने की कोशिश है, जबकि दूसरी तरफ यह एक राजनीतिक दांव भी है। यह स्पष्ट है कि इस कदम को आम आदमी पार्टी नैतिकता और सिद्धांतों के आधार पर उठाया गया कदम बताने की कोशिश करेगी। पार्टी इसे इस रूप में पेश करेगी कि उनका नेता सत्ता से ज्यादा नैतिकता को अहमियत देता है।
हालांकि, कुछ आलोचक इसे सिर्फ एक रणनीतिक चाल मानते हैं। जिस नेता ने 6 महीने पहले जेल जाने पर इस्तीफा नहीं दिया था, वह अब अचानक नैतिकता का सहारा क्यों ले रहा है, यह एक बड़ा सवाल है। केजरीवाल का यह कदम उनकी पार्टी की गिरती छवि को सुधारने का एक प्रयास है, जो पिछले कुछ समय से लगातार आलोचनाओं का सामना कर रही है।
लोकसभा चुनाव में झटका Arvind Kejriwal Resignation
लोकसभा चुनाव में केजरीवाल को दिल्ली की जनता से उम्मीद के मुताबिक समर्थन नहीं मिला था। सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के बाद उन्हें चुनाव प्रचार करने की अनुमति मिली, लेकिन इसके बावजूद बीजेपी ने दिल्ली की सभी सात सीटें जीत लीं। यह एक बड़ा झटका था, क्योंकि 2019 के मुकाबले बीजेपी की जीत का अंतर कम था। पंजाब में भी, जहां 2022 के विधानसभा चुनावों में आप ने शानदार जीत दर्ज की थी, पार्टी की स्थिति अब कमजोर हो रही है। जून में हुए लोकसभा चुनावों में पंजाब की 13 सीटों में से आप केवल तीन पर ही जीत दर्ज कर पाई थी।
दिल्ली नगर निगम चुनावों में भी आप ने 250 में से 134 सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया था, लेकिन यहां भी बीजेपी के साथ वोट शेयर में मात्र 3 प्रतिशत का ही अंतर था। यह दर्शाता है कि पार्टी को अब पहले की तरह प्रचंड जनसमर्थन नहीं मिल रहा है, और सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है।
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सत्ता विरोधी लहर का सामना
आम आदमी पार्टी 2013-14 में जिस सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर सत्ता में आई थी, अब खुद उस लहर का सामना कर रही है। एक दशक या उससे ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाली हर पार्टी को इस तरह की लहर का सामना करना पड़ता है, और आप भी इस चक्र से अछूती नहीं है। सत्ता में लंबे समय तक बने रहने के बाद जनता की अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं, और अगर उन अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया जाता तो पार्टी के खिलाफ असंतोष बढ़ता जाता है।
केजरीवाल की पार्टी की छवि पहले ‘आम आदमी’ के हितैषी के रूप में थी, लेकिन हाल के वर्षों में उनकी पार्टी और सरकार की छवि लगातार गिरती गई है। इससे उनकी लोकप्रियता में भी गिरावट आई है, जो पार्टी के लिए एक बड़ा संकट है।
गिरती छवि और भ्रष्टाचार के आरोप
आप पार्टी की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि वह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से निकली थी। लेकिन अब उसकी यही छवि धूमिल हो रही है। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने सरकारी आवास के मुद्दे पर भी आलोचनाओं का सामना किया। उन्होंने एक आलिशान सरकारी आवास बनवाया, जो उनकी ‘आम आदमी’ की छवि के खिलाफ था। इसके अलावा, ईडी और सीबीआई ने शराब घोटाले में उनकी कथित भूमिका के आरोप लगाए, जिससे उनकी छवि और धूमिल हो गई। उनके उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया भी इसी घोटाले के कारण 17 महीने तक जेल में रहे। इसके अलावा, पार्टी के अन्य प्रमुख नेता भी जेल में हैं, जिनमें सत्येंद्र जैन और अमानतुल्लाह खान शामिल हैं।
भले ही आप और उसके समर्थक इन मामलों को राजनीतिक उत्पीड़न करार दें, लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि अगर ये आरोप निराधार थे, तो अदालतों ने इतने लंबे समय तक इन मामलों को क्यों जारी रखा?
उपराज्यपाल से टकराव
केजरीवाल के शासन के दौरान एक और प्रमुख मुद्दा उपराज्यपाल (LG) के साथ उनकी टकरावपूर्ण राजनीति रही है। दिल्ली के पिछले मुख्यमंत्रियों ने उपराज्यपाल के साथ मिलकर काम करने में सफलतापूर्वक शासन किया था, लेकिन केजरीवाल और उनके सरकार ने इस संघर्ष में कई साल बर्बाद कर दिए। इससे पार्टी की छवि को और नुकसान हुआ, क्योंकि जनता को लगा कि उनकी सरकार प्रशासन से ज्यादा राजनीति में उलझी हुई है।
छवि सुधारने की आखिरी कोशिश
केजरीवाल का इस्तीफा उनकी छवि को सुधारने का एक अंतिम प्रयास माना जा सकता है। लेकिन यह कोशिश बहुत देर से की गई है। अगले चुनाव में अब केवल कुछ ही महीने बचे हैं, और ऐसे में इस्तीफा देना एक बड़ा राजनीतिक बलिदान नहीं माना जा सकता। यह कदम सिर्फ पार्टी को और नुकसान से बचाने के लिए उठाया गया प्रतीत होता है।
सत्ता में वापसी की संभावना
इस सब के बावजूद, ऐसा नहीं है कि आम आदमी पार्टी सत्ता में वापस नहीं आ सकती। दिल्ली की राजनीति में अभी भी पार्टी की स्थिति मजबूत है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई दूसरा बड़ा विकल्प नजर नहीं आ रहा है। बीजेपी पिछले कई वर्षों से दिल्ली में एक मजबूत मुख्यमंत्री उम्मीदवार पेश नहीं कर पाई है। कांग्रेस भी 2014 के बाद से कमजोर पड़ी हुई है।
इस्तीफा क्यों दिया?
केजरीवाल के इस फैसले के पीछे एक और पहलू यह हो सकता है कि वह लंबे समय के लिए पार्टी के भीतर किसी और नेता को कमान सौंपने का जोखिम नहीं उठाना चाहते। जब जयललिता या लालू प्रसाद जैसे बड़े नेता जेल गए थे, तो उनके स्थान पर नए मुख्यमंत्री नियुक्त किए गए थे। हाल ही में झारखंड में हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद भी एक कार्यवाहक मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया था। लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ, जो केजरीवाल की असुरक्षा को दर्शाता है।
अरविंद केजरीवाल का इस्तीफा एक राजनीतिक चाल है, जिसका उद्देश्य उनकी और उनकी पार्टी की गिरती छवि को सुधारना है। यह इस्तीफा एक हताश कदम है, लेकिन इसे राजनीतिक रूप से प्रभावी माना जा सकता है। हालांकि, इस कदम से पार्टी को सत्ता में वापसी का मौका मिल सकता है, लेकिन यह स्पष्ट है कि आम आदमी पार्टी को अपनी पुरानी चमक वापस पाने के लिए अब कड़ी मेहनत करनी होगी।