कमल हासन के चोल राजवंश पर बयान पर क्यों मचा है बवाल

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Chola Dynasty की आड़ में यह कहना कि हम हिंदू नहीं हैं, आखिर इस विरोध की आवाज की वजह क्या है?

Chola Dynasty Hinduism: चोल राजवंश पर बनी फिल्म पोन्नियन सेल्वन ( PS – 1) इस वक्त काफी चर्चा में है। फिल्म का बजट और कास्ट दोनों काफी बड़े हैं। फिल्म के प्रमोशन के दौरान इस फिल्म को लेकर मशहूर एक्टर कमल हासन के एक बयान के बाद विवाद भी हो गया है। दरअसल, हासन ने कहा कि चोल राजवंश के दौरान हिंदू धर्म नहीं था। देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ आदिवासी समुदाय और लिंगायत भी खुद को हिंदू धर्म से अलग बताने की मांग कर रहे हैं।

चोल राजाओं के दौर में हिन्दू धर्म था, वह हिन्दू धर्म के लोगों का बहुत सम्मान करते थे 

अभिनेता कमल हासन को शायद चोल राजाओं से जुड़े पूरे इतिहास की जानकारी नहीं है 

यह बात सही है कि सरना और लिंगायत समुदाय पिछले काफी समय से खुद को हिंदू धर्म से अलग करने की मांग कर रहे हैं

कमल हासन अपनी फिल्मों को लेकर काफी चर्चोओं में रहते हैं। वह मौजूदा दौर में अभिनेता से नेता बने हैं। ऐसे में उनकी बात पर बवाल होना या लोगों का रियेक्ट करना स्वभाविक है। हाल ही में इन्होंने पीएस-1 यानी पोन्नियन सेल्वन को लेकर एक बयान दिया। यह फिल्म चोल राजाओं को केन्द्र में रखकर बनाई गयी है। चोल राजवंश भारत के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। कमल हासन ने उस दौर को लेकर बयान दिया है कि चोल राजवंश के दौरान हिन्दु धर्म नहीं था। अब कमल हासन को या तो इतिहास की पूरी जानकारी नहीं है या फिर वह जानबूझकर राजनीति के चलते यह बयान दे रहे हैं, ऐसा इसलिए भी है क्योंकि मौजूदा समय में सरना और लिंगायत समुदाय खुद को हिन्दु धर्म से अलग करने की मांग कर रहाे हैं।

दरअसल, नेशनल फिल्म पुरस्कार विजेता डायरेक्टर वेत्रिमारण ने कहा था कि राजा चोल हिंदू नहीं थे। उन्हीं के बयान का हासन ने समर्थन किया था। हाल के कुछ सालों में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जिसमें अलग-अलग समुदाय को लोग खुद को हिंदू नहीं बताते हैं। इसमें कर्नाटक का लिंगायत समुदाय और झारखंड, ओडिशा और असम के कुछ आदिवासी समुदाय भी है।

कुछ आदिवासी समुदाय की मांग सरना को मिले अलग धर्म का दर्जा

झारखंड, ओडिशा और असम 5 राज्यों के आदिवासी समुदाय के लोग पिछले काफी वक्त से उनके धर्म ‘सरना’ को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की मांग कर रहे हैं। झारखंड, ओडिशा और असम का यह समुदाय काफी लंबे समय से इसको लेकर आंदोलन कर रहे हैं। हालांकि संविधान के मुताबिक सभी को अपनी अपनी जातियों समुदाय की सुरक्षा का पूरा अधिकार है।

वहीं, आदिवासी समुदाय का एक बड़ा हिस्सा खुद को हिंदू नहीं मानता है। संविधान में अनुसूचित जनजाति को हिंदू माना जाता है लेकिन ऐसे बहुत से कानून हैं जो इनपर लागू ही नहीं होते हैं। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956, हिंदू दतकत्ता और भरण-पोषण अधिनियम 1956 के अलावा हिंदू विवाह अधिनियम 1955 आदिवासियों पर लागू नहीं होता है। इस समुदाय में हिंदू धर्म की कई ऐसी परंपराएं हैं जो मान्य नहीं होती हैं। आदिवासी समुदाय अपनी मान्यताओं के हिसाब से शादी या अन्य चीजें कर सकते हैं।

तो क्या आदिवासी हिंदू नहीं?

जिन 5 राज्य के आदिवासी खुद को सरना धर्म के बता रहे हैं, उनकी तादाद ज्यादा जरूर है, लेकिन ऐसा नहीं है कि सभी आदिवासी खुद को सरना धर्म के मानते हैं।  इस धर्म के मानने वाले प्रकृति के उपासक होते हैं। ये ईश्वर या मूर्ति की पूजा नहीं करते हैं। सरना धर्म के लोग धर्मेश यानी पिता, सरना यानी मां और प्रकृति यानी जंगल की पूजा करते हैं। इस धर्म को मानने वाले ‘सरहुल’ त्योहार मनाते हैं।

झारखंड की सरकार ने ‘सरना आदिवासी धर्म कोड बिल’ पास कर दिया है। अंग्रेजों के जमाने में 1871 में जब पहली बार जनगणना हुई थी तो आदिवासियों के लिए अलग से धर्म कोड था। 1941 तक इस नियम को लागू रखा गया। 1951 में आजादी के बाद जब पहली जनगणना हुई तो आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति कहा जाने लगा और जनगणना में ‘अन्य’ नाम से धर्म की श्रेणी बना दी गई।

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अनुसूचित जनजाति की आबादी 10 करोड़ से ज्यादा है। इनमें से 86 लाख से ज्यादा झारखंड में हैं। इस जनगणना में 79 लाख लोगों ने धर्म के कॉलम में अन्य भरा था। 49 लाख ने अन्य की जगह सरना लिखा था। इनमें से 42 लाख लोग झारखंड के थे।

अब चलिए चोल राजवंश का इतिहास जान लीजिए

चोल राजवंश की स्थापना तीसरी सदी में हुई थी 13वीं सदी तक इस राजवंश का राज चला था। कहा जाता है कि देश में चोल राजवंश का शासन सबसे लंबे समय तक रहा था। राजेंद्र तृतीय इस राजवंश के आखिरी शासक हुए थे। चोल राजाओं में राजाराज प्रथम और उनके पुत्र राजेंद्र प्रथम सबसे पराक्रमी चोल राजा हुए थे। अशोक के 13वें शिलालेख में चोल राजाओं का जिक्र है। चोलों के अपने शासनकाल के दौरान विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया था। तंजौर चोल राजाओं की राजधानी रही थी। इतिहास में चोल राजाओं को शैव (Saivites) माना जाता रहा है। ये राजा भगवान शिव की पूजा करते थे। चोल राजाओं ने अपने शासनकाल के दौरान कई शिव मंदिर बनाए थे।

शैव और भक्ति साहित्य का भी जिक्र

परांतका I, राजेंद्र I, राजेंद्र राजा गांदिरित्या और उनकी पत्नी सांबियान मादेवी के शासनकाल के दौरान शैव और भक्ति साहित्य को काफी बढ़ावा दिया गया था। परांतका I के शिव मंदिर को सोने से मढ़ने का भी जिक्र कई जगह मिलता है। राजेंद्र -I ने अपने शासनकाल के दौरान कुछ जगहों पर शिव मंदिर बनाए थे। उन्होंने इन मंदिरों को जमीन और आभूषण भी दान किए थे। हालांकि, चोल राजा अन्य धर्मों के प्रति भी सहिष्णु थे। इनके शासनकाल के दौरान विष्णु की भी पूजा होती थी। मंदिरों और मठों का निर्माण के साथ ही चोल समाज में आर्थिक समृद्धि और लोगों का जीवन स्तर काफी बढ़ा था। चोल राजाओं ने कई मंदिरो और मठों का निर्माण करके कला, संस्कृति आदि को बढ़ावा दिया था। चोल राजाओं के दौरान हिंदुत्व का प्रभाव बढ़ा था। ऐसे में हासन का बयान कि चोल राजाओं के दौरान हिंदू धर्म नहीं था, इतिहास के तथ्यों के साथ मेल नहीं खाता है।

लिंगायत समुदाय का क्या इतिहास?

कर्नाटक में लिंगायत समुदाय को अगड़ी जातियों में गिना जाता है। राज्य में 17 फीसदी से ज्यादा आबादी लिंगायतों की मानी जाती है। राज्य में लिंगायत और वीरशैव दो बड़े समुदाय हैं। इतिहास के अनुसार इन दोनों समुदायों का जन्म समाज सुधार आंदोलन के दौर में 12वीं सदी में हुआ था। इस दौरान पारंपरिक मूल्यों (ब्राह्मण वैल्यू) के खिलाफ लोग आवाज उठा रहे थे। इस दौरान वासव (Basava) जो खुद ब्रह्माण थे इन कुरीतियों का विरोध करना शुरू कर दिया। जल्द ही उनके पीछे बड़े पैमाने पर लोग जुड़ने लगे। दर्जी का काम करने वाले, मोची, कुम्हार का काम करने वाले लोग वासव के साथ जुड़ने लगे। इस दौरान ब्राह्माण व्यवस्था का जबरदस्त विरोध हुआ था। लिंगायत समुदाय शुरू में तो वैदिक धर्म का ही पालन करता था लेकिन बाद में लिंगायत समुदाय की स्थापना की गई।

हिंदू धर्म की प्रथाओं से अलग है लिंगायत समुदाय की प्रथा

लिंगायत धर्म को मानने वाले लोग वेद, पुराणा, मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते हैं। ये इष्टलिंग की पूजा करते हैं। इष्टलिंग अंडे के आकार की आकृति होती है। ये समुदाय पुनर्जन्म में भी विश्वास नहीं करता है। ये समुदाय अपने शवों को दफनाता है। वासव के अनुयायियों का मानना है कि उनके गुरु ने वैदिक परंपरा और जाति व्यवस्था का विरोध किया था। ये समुदाय खुद को हिंदू धर्म से अलग पहचान देने की लगातार मांग करती रही है। 2018 विधानसभा चुनाव से पहले भी लिंगायत समुदाय ने खुद को अलग धर्म देने की मांग उठाई थी। ये मांग अभी भी जारी है।

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