विकास के पहिये के नीचे पीसता पर्यावरण

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दिल्ली में बढ़ता प्रदूषण जानलेवा होता जा रहा है। दिल्ली का AQI 230 को पार कर चुका है जो बेहद खतरनाक कैटेगिरी में आता है।  दिल्ली सरकार ने बढ़ते प्रदूषण के चलते ग्रेप लागू किया जिसके तहत दिल्ली में निर्माण बंद है। दिल्ली में ऐसी फैक्ट्रियों पर भी पाबंदी है जो पॉल्यूशन के स्तर को बढ़ाने का काम करती थी। 

सवाल ये है कि मौजूदा दौर में हम किस तरह के वातावरण में रह रहे हैं। बढ़ता प्रदूषण क्यों जानलेवा होता जा रहा है? बढ़ते प्रदूषण का जिम्मेदार कौन है?

बात अगर दुनिया की करें तो आज यूरोप के बहुत से मुल्क़ गर्म-लहरों का शिकार हो रहे हैं। पेरिस का तापमान 40 डिग्री तक पहुंच रहा है। फ़्रांस, स्पेन, पुर्तगाल आदि देशों के हज़ारों हेक्टेयर जंगल जलकर तबाह हो रहे हैं। दूसरी तरफ़ कई इलाक़े सूखे का शिकार हैं और कई इलाक़ों में इतनी ज़्यादा बारिश हो रही है कि वहां के इलाक़े बाढ़ की चपेट में आ चुके हैं।

हिमाचल और उत्तराखंड के बहुत से इलाकों में बादल फटने और भारी बारिश जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं, जिनकी वजह से पहाड़ों की ज़मीन खिसकना आम हो गया है। इस सबके पीछे क्या कारण हैं? क्या यह आज से पहले भी इसी तरह होता था? आइए, इसे समझने की कोशिश करते हैं।

धरती का वातावरण कौन से कारक तय करते हैं?

धरती के पर्यावरण में हमारा वायुमंडल, जिसकी 4 परतें हैं अहम किरदार निभाती हैं। इन परतों में मौजूद गैसों की संरचना, पानी के कण, आदि मिलकर तय करते हैं कि सूरज की कौन-सी किरणें सोखी जानी चाहिए और कितनी सोखी जानी चाहिए। दूसरा कारण धरती का सूरज के चारों ओर चक्कर लगाना है, जो इसमें मुख्य योगदान देता है। जब वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसें (वे गैसें जो ज़्यादा गर्मी सोखती हैं) बढ़ती हैं तो इससे धरती का तापमान बढ़ता है और जब ये कम होना शुरू हो जाती हैं, तो तापमान फिर से कम होना शुरू कर देता है।

क्यों बढ़ रही हैं ग्रीनहाउस गैस?

पिछले 100 साल के विकास पर अगर नजर दौड़ाई जाए तो धरती पर मानव विकास का यह महत्वपूर्ण हिस्सा है। आज से महज 100 साल पहले तक धरती का मानव काफी हद तक प्रकृति के साथ ही रहता था। इससे पहले जाए तो वह पत्थरों के औजार और यातायात के लिए पशुओं का उपयोग करता था। लेकिन पिछले 100 सालों में अंधाधुंध पेड़ों का कटाव, कंस्ट्रक्शन, धरती का दोहन, बड़ी-बड़ी खदान खोदना और इस्पात उत्पादन के लिए बड़ी भट्टियों को इस्तेमाल बढ़ा है। इस अंधाधुंध विकास के पहिये से पर्यावरण लगातार कुचला जाता रहा।

ऊंचे ऊंचे भवन निर्माण के लिए पेड़ों का बड़ा तादाद में कटाव, भूमि को समतल कर देना और पहाड़ों को खत्म कर देना पर्यावरण के विनाश में अहम किरदार निभा रहे हैं।

कारखानों ने दुनिया बदली लेकिन पर्यावरण को भी नष्ट किया

हम आज दुनिया में बड़े बड़े कारखानों को देखकर खुश हो रहे हैं लेकिन असल में क्या वाकई बड़े कारखाने और अंधाधुंध निर्माण हमारी आवश्यकता थी। अगर गौर से देखा जाए तो पिछले 100 साल के दौरान पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य ने इस दिशा में सोचा ही नहीं।

निर्माण की नींव तो रखी लेकिन पर्यावरण को कैसे सुरक्षित रखा जाए इसपर विचार नाम का ही किया गया। कारखानों में बड़े स्तर पर उत्पादन, उद्य़ोग जगत में क्रांति के साथ पूंजीवादी व्यवस्था दाखिल हुई। इस पूंजीवादी व्यवस्था ने रात दिन उत्पादन पर जोर दिया। नतीजा ये रहा कि एक तरफ उद्योग बड़ा तो दूसरी ओर जंगलों का सफाया होता गया।

जलता ईंधन कार्बन पैदा करता रहा और इस कार्बन और जहरीले धुएं ने पर्यावरण को सुरक्षित रखने वाली चारों लेयर्स को तोड़ दिया। कारखानों, वाहनों, ईंधन से पैदा होने वाला धुआँ हवा में कार्बन डाइऑक्साइड, मिथेन और ऐसी अन्य ग्रीन हाउस गैसों को बढ़ा देता है, जिससे धरती का तापमान साल दर साल बढ़ता जाता है।

अगर धरती को संतुलित रखने वाले जंगलों की स्थिति देखनी हो तो ये आँकड़े काफ़ी हैं। आज से 10,000 साल पहले धरती पर 57 फीसदी जंगल और 42 फीसदी घास के मैदान थे, जो धरती का 71 फ़ीसदी ज़मीनी भाग ढकते थे। फिर सन् 1900 तक आते-आते यह 48 फीसदी जंगल +28 फीसदी घास के मैदान में तब्दील हो जाता है। सन् 1900 के बाद 2018 तक जंगल केवल 38 फ़ीसदी रह जाते हैं, घास के मैदान केवल 14 फीसदी ही बाक़ी बचे रह जाते हैं। पिछले 30 सालों में धरती के जंगलों का 42 करोड़ हेक्टेयर हिस्सा खत्म किया जा चुका है। साल 2015 से 2020 के अरसे में प्रति साल लगभग एक करोड़ हेक्टेयर जंगल नष्ट किए गए हैं और 2016 से 2050 तक 28.9 करोड़ हेक्टेयर जंगलों को और ख़त्म कर दिया जाएगा। जिससे अंदाज़न 169 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड हवा में और बढ़ जाएगी। इन ग्रीनहाउस गैसों के बढ़ने से तापमान में और बढ़ोतरी होगी, जिससे जंगलों में आग और अन्य भयानक ग़ैर-ज़रूरी प्राकृतिक परिघटनाएँ और भी बड़े स्तर तक घटित होंगी।

इसलिए अब जिस स्थिति से हम गुज़र रहे हैं, इसमें कुछ भी प्राकृतिक नहीं है, क्योंकि इस सबके लिए हम और हमारा अंधाधुंध विकास जिम्मेदार है।

लेकिन क्या हम पर्यावरण को बचा सकते हैं

पर्यावरण को अभी भी बचाया जा सकता है। और वह भी सतत विकास के साथ। पर्यावरण को बचाने के लिए यह जरूरी है कि हम अभी से यह तय करें कि हम ज्यादा से ज्यादा पेड़ अपनी धरती पर लगाएंगे। हमें कोशिश ये भी करनी चाहिए कि हम ज्यादा से ज्यादा पब्लिक ट्रांसपोर्ट का ही प्रयोग करें। जब तक जरूरी न हो, निजी वाहन के प्रयोग से बचे। उद्योग जगत से जुड़े लोगों को भी बहुत तेजी से अपने क्षेत्र में विकास करने की आवश्यकता है। वह जंगलों का कटाव न करें और कारखानों से निकलने वाले गंदे धुंए और पानी की निकासी फिल्टर प्रोसेस के साथ ही करें।

विकास के मॉडल को हम अब रोक तो नहीं सकते लेकिन, कोशिश करें तो इस मॉडल में समझदारी के साथ कुछ बेहतर विकल्प प्रयोग कर सकते हैं। जिसके बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि न सिर्फ दिल्ली बल्कि सारी दुनिया की आबोहवा दुरुस्त हो जाएगी।

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